# धम्म प्रभात #
"यस्स मूले नि'सिन्नोव सब्बारि विजयं अका।
पत्तो सब्बञ्ञुतं सत्था वन्दे तं बोधिपादपं।।
इमे हेते महाबोधि लोकनाथेन पूजिता।
अहम्पि ते नमस्सामि बोधिराजा नमत्थु ते।।"
भगवान
बुद्ध ने जिस बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए ही सब शत्रुओं पर विजय पाई तथा
सर्वज्ञता का ज्ञान प्राप्त किया, उस बोधि वृक्ष को नमस्कार है।
यह बोधि वृक्ष लोकनाथ भगवान बुद्ध के द्वारा
पूजित है, मैं भी उन्हें नमस्कार करता हूं- हे बोधिराजा! तुम्हें मेरा नमस्कार है।
पूजित है, मैं भी उन्हें नमस्कार करता हूं- हे बोधिराजा! तुम्हें मेरा नमस्कार है।
बोधगया कि धरती को धम्म तरंगों से पल्लवित करता बोधि वृक्ष आज भी मौजूद है।
तथागत
बुद्ध ने उसी जगह, जिसे आज वज्रासन कहते हैं वहां सम्यक सम्बोधि प्राप्त
की थी।संबोधि प्राप्त करने के बाद एक सप्ताह तक वे सम्बोधि सुख का अनुभव
करते रहे। दुसरे सप्ताह अनिमेष लोचन स्थान पर खड़े खड़े अपलक दृष्टि से
बोधि वृक्ष को वे देखते रहे। इस बोधि वृक्ष की हम वंदना करते हैं।
भगवान
बुद्ध ने जिस वृक्ष के नीचे बैठकर सम्यक सम्बोधि प्राप्त की वह पिपल वृक्ष
है। भगवान को ज्ञान की प्राप्ति इस पिपल वृक्ष के नीचे होने के कारण हम
उसे बोधि वृक्ष कहते है।
बोधगया में महाबोधि महाविहार के पीछे खड़ा बोधिवृक्ष मूल बोधि वृक्ष की चौथी पीढ़ी का वृक्ष है।
मूल
बोधि वृक्ष की पूजा वंदना करने के बाद महान सम्राट अशोक ने महाविहार का
निर्माण करवाया था। वर्तमान महाविहार उस की नींव पर खडा है। सम्राट अशोक की
एक रानी तिष्यरक्खिता ने मूल बोधि वृक्ष को कटवा दिया था। लेकिन जड़ें
जीवित होने के कारण पर बोधि वृक्ष पनप कर बड़ा हो गया और करीब ८०० साल तक
सलामत रहा। यह दुसरी पीढ़ी के बोधि वृक्ष को बंगाल के शशांक राजा ने बौद्ध
धम्म के प्रति द्वेष और ब्राह्मण धर्म के प्रति अनुराग होने के कारण जला
दिया था। जले हुए बोधि वृक्ष की जड़ों में से
फिर एक
बोधि वृक्ष उठ खड़ा हुआ, जो तीसरी पीढ़ी का माना गया है। तीसरी पीढ़ी का
बोधि वृक्ष करीब १२५० साल तक जीवित रहा और फिर इ. स. १८७६ में कुदरती
होनारत में धराशाई हो गया। बाद में Lord Alexander Cunningham ने इ. स.
१८८१ में अनुराधापुर श्रीलंका से मूल बोधि वृक्ष से उत्पन्न बोधि वृक्ष
लाकर बोधगया महाबोधि महाविहार में मूल स्थान पर लगाया। यह चौथी पीढ़ी का
बोधि वृक्ष हुआ। है तो मूल बोधि वृक्ष से उत्पन्न, इसलिए यह बोधि वृक्ष मूल
बोधि वृक्ष से भिन्न नहीं है।
महान सम्राट अशोक की
राजकुमारी पुत्री संघमित्रा, जो भिक्खुणी थी,वह बोधगया से मूल बोधि वृक्ष
की शाखा लेकर अनुराधापुर श्रीलंका गई थी और अनुराधापुर में बोधि वृक्ष
लगाया गया था। वही बोधि वृक्ष आज भी मौजूद है, जीवंत है और उसका ऐतिहासिक
records सुरक्षित है।
इ.स. २००७ में बोधगया स्थित
बोधि वृक्ष का DNA test हुआ था और यह प्रमाणित हुआ कि बोधगया में स्थित
बोधि वृक्ष अनुराधापुर श्रीलंका के बोधि वृक्ष का ही अंश है।
पवित्र बोधिवृक्ष से उत्पन्न अन्य बोधि वृक्ष महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों पर आज हम देखते हैं।
बोधि वृक्ष के दर्शन मात्र से बौद्ध धम्म अनुयाईओं को धम्मसंवेग जागते हैं और श्रद्धापूर्वक उसकी वंदना करते हैं।
अहम्पि ते नमस्सामि बोधिराजा नमत्थु ते।
नमो बुद्धाय
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