15.9.1956
डॉ. अम्बेडर का लेख
आज
से 30 साल पहले मैंने यह आन्दोलन चलाया था कि "महार-चमार मरी हुई
गाय-भैंसों को न उठाये और न मरी हुई गाय-भैसों का मांस ही खायें" मेरे इस
आंदोलन से सर्वण हिंदुओं को बड़ी परेशानी हुई । मेरी बहस यह थी कि 'जीवित
गाय-भैसों का दूध तुम पीओ और मरने पर हम उठाये
ऐसा
क्यों ? सर्वण हिंदु यदि अपनी मृत मां की लाश को खुद उठाते है, तो मरी हुई
गाय- भैंसों की लाशें, जिनका वे जन्म -भर दूध पीते है, मरने पर क्यो नही
उठाते? मेरी दूसरी दलील यह थी कि "यदि सर्वण हिंदु अपनी मृत माँ को बाहर
फैकने के लिए हमे दे , तो हम अवश्य ही मरी हुई गाय को भी
उठा कर ले जायेंगे। इस पर एक चितपावन ब्राह्मण ने पूना के 'केसरी' अखबार में ( जो लोकमान्य तिलक का निकाला चित्पावन ब्राह्मणों का मुखपत्र है) कई पत्र प्रकाशित करके हमारे भाईयों को बरगलाना शुरु किया कि मृत पशुओ के न उठाने से महार-चमारो का बड़ा नुकसान होगा। उसने उटपटांग आंकडे देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मरे हुए पशु की हड्डी, दांतो, सीगों आदि के बेचने से 500-600 सौ रुपया वार्षिक लाभ होता है । डॉ.अमबेडकर उन्हे बहकाकर उनका नुकसान कर रहा है।
उठा कर ले जायेंगे। इस पर एक चितपावन ब्राह्मण ने पूना के 'केसरी' अखबार में ( जो लोकमान्य तिलक का निकाला चित्पावन ब्राह्मणों का मुखपत्र है) कई पत्र प्रकाशित करके हमारे भाईयों को बरगलाना शुरु किया कि मृत पशुओ के न उठाने से महार-चमारो का बड़ा नुकसान होगा। उसने उटपटांग आंकडे देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मरे हुए पशु की हड्डी, दांतो, सीगों आदि के बेचने से 500-600 सौ रुपया वार्षिक लाभ होता है । डॉ.अमबेडकर उन्हे बहकाकर उनका नुकसान कर रहा है।
एक बार 'संगमनेर' (
बेलगाव-मैसूर) मे वह ब्राह्मण मुझे मिला और उन्ही बातों को कहकर मुझसे
तर्क करने लगा। मैने 'केसरी' में प्रकाशित सभी प्रशनों का खुली सभा में
जवाब दिया । 'मेरे भाईयों के पास खाने को अन्न नहीं है, स्त्रियों के पास
तन ढकने को कपड़ा नही है, रहने को मकान नही है और जोतने के लिए जमीन नही
है। इसलिये वे दलित है और महा दुखी है, इस सभा में उपस्थित लोग बताये'
इसका कारण क्या है?' लेकिन किसी ने उत्तर नही दिया। वह ब्राह्मण भी चुप
बैठा रहा । तब मैंने कहा - अरे भले लोगों, तुम हमारे लाभ की चिंता क्यों
करते हो ? अपना लाभ हम खुद सोच लेंगे । अगर तुम्हे इस काम में भारी लाभ
दिखाई देता है, तो तुम अपने संबंधियों को क्यों नही सलाह देते कि वे मरे
हुए पशुओं को उठाकर पांच-छ: सौ, रुपया वार्षिक कमा लिया करे ? ' यदि वे ऐसा
करे तो इस लाभ के अलावा उन्हे 500 रु. इनाम मैं खुद दूंगा । तुम जानते हुए
इस बड़े मुनाफे को क्यों छोडते हो ?" लेकिन आज तक कोई सवर्ण हिंदु इस काम
के लिए तैयार नही हुआ । शायद खुद करने मे मुनाफा नजर न आया होगा !
दूसरो को मिथ्या प्रलोभन देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने को 'धूर्तता'
कहा जाता है और इतना बडा सफेद झूठ 'केसरी' जैसे पत्र में छपना धूर्तता की
पराकाष्ठा है ।
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर
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